जब भोपाल शहर में गुम होती रिवायतों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रही थी, उसी दौरान मैंने समझा था, बड़े होते शहर बड़े होने के क्रम में सबसे पहले अपनी सरलता खो देते हैं। अपनी सहजता, अपनी अपनाइयत। ... वे दूसरों के दुख और सुख को पास से छूने की क्षमता का लोप कर देते हैं। रिश्तों में बदलाव, सिर्फ़ पारिवारिक स्तर पर नहीं होता, बल्कि आपका पड़ोस भी आपका अवांतर समाज हो जाता है। बातचीत और रोज़मर्रा की गप्प के अड्डों के एड्रेस बदल जाते हैं। नाई, सब्जीवाला, मिठाईवाला अब आपके बतियाने का सुख नहीं उठाते, बल्कि जल्दी-जल्दी आपके काम को निबटा, अगले ग्राहक से मुख़ातिब होते हैं। सबकुछ प्रोफ़ेशनल हो जाता है। रिश्तों कि मीठी आँच मद्धिम हो जाती है और प्रतियोगिता का सुरूर पेशानियों पर रेखाएँ खींचने लगता है।
- वन्दना राग (एक संस्मरण 'इलाहाबाद के पथ पर...' से , 'नया ज्ञानोदय', फरवरी 14)